काश में तुम्हें, कुछ यूं छू सकूं ;
जो शब्द होटों में ही तुम्हारे,
कहीं दबे रह गए ;
उन्हें छु कर, महसूस कर सकूं ।
तुम्हारी आँखों के , कुछ यूं , करीब आ सकूं ;
की, राज़ जो छिपे हैं इनमें ;
उन्हें पढ़ने की इजाज़त हासिल कर ;
सब कुछ, पढ़-समझ सकूं ।
काश मैं तुम्हें कुछ यूं छू सकूं ।
काश,मैं तुम्हें , कुछ यूं, समझ सकूँ ।।
तुम्हारे चुलों को सहलाकर ,
मस्तिश्क में, जो तुम्हारे हल-चल है मची,
उसे समझ सकूं ;
हो सके, तो धड़कनों को तुम्हारे, सुन सकूं ,
इसमे छुपे, राज़ और किससे सुन, समझ सकूं ;
काश मैं तुम्हें कुछ यूं छू सकूं ।
काश,मैं तुम्हें , कुछ यूं, समझ सकूँ ।।
वो घाव जो जिस्म से छुपे ,
कहीं, मन के भीतर, घर कर बैठे हैं ;
उन्हें, देखने की, इजाज़त हासिल कर सकूं ,
हो सके, तो उन पर मलहम लगाऊँ ,
उन्हें कुछ कम, शायद ठीक कर सकूँ ;
काश मैं तुम्हें कुछ यूं छू सकूं ।
काश,मैं तुम्हें , कुछ यूं, समझ सकूँ ।।
वो खंजर जो तुम्हारी पीठ में दबे,
नाजाने, कब से अपनी कहानी,
बयां करने को तरस रहे हैं;
उन्हें छू कर, वह सुन सकूँ ।
उनके कारण, जो तुम्हारे पर घायल हुए हैं ,
उन्हें दुरुस्त कर सकूं ।
तुम्हारी जो उच्ची उड़ान है ,
उसका हिस्सा मैं भी बन सकूँ ;
काश मैं तुम्हें कुछ यूं छू सकूं ।
काश,मैं तुम्हें , कुछ यूं, समझ सकूँ ।।
जो पैर तुम्हारे ,
जिन पर शायद कई फिदा हैं ,
दिन-रात की, भाग-दौड़ से ,
थके आराम तरस रहे हैं ;
उन्हें,थोड़ी सी मालिश कर सकूँ ।
हाँ, भले ही तुम्हारी माँ, की तरह न सही ;
पर, कुछ तो उनका, दर्द कम कर सकूं ।
काश मैं तुम्हें कुछ यूं छू सकूं ।
काश,मैं तुम्हें , कुछ यूं, समझ सकूँ ।।
~~FreelancerPoet
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