मैं हूँ जो हूँ, के कुछ तो हूँ ;
के है वजूद, मेरा भी कहीं ।
टूटा हुआ, ही सही ;
टुकड़ो में मैं, हूँ कहीं ।
धुंदली सी, ही सही ;
मंज़िल मेरी भी, है कहीं ।
गुमनाम हूँ , पर गुम नहीं ।
गिरा हूँ पर, रुका नहीं ।
सबसे जुदा, शायद मैं हूँ ;
पर यह तो कोई , गुनाह नहीं ।
इस भीड़ में, शायद नहीं ;
दिख रहा हूँ, मैं कहीं ।
इस भीड़ में, ढूंढो ज़रा ;
मैं भी हूँ, इसमे कहीं ।
इस जगमगाती, दुनिया में शायद ;
चमक है मेरी, फीकी पड़ रही ।
चमक तो फिर भी, रहा हूँ ;
मैं भी कहीं ।
है मन में बस, यही धुन चल रही :
" मैं हूँ जो हूँ, के कुछ तो हूँ ; "
" के है वजूद, मेरा भी कहीं । "
" मैं हूँ जो हूँ, के कुछ तो हूँ ; "
" के है वजूद, मेरा भी कहीं " ।।