कभी अंधेरों में भी उससे मिलो न
कभी अंधेरों में भी , उससे मिलो न !
उजालों में तारीफ जिस ,
हुस्न को देख, करते हो ;
कभी, उसकी ज़ख्मों से लिप्त ,
रूह से भी मिलो न ।
वो खुशनुमा चेहरा देख ,
जो तुम आहें भरते हो ;
उसके पीछे छिपे ,
गम की दरारों को भी कभी देखो ।
उसके गम को भी ,
उसकी हँसी की तरह ही ,
इकमिनां से बैठकर सुनने की
कोशशि करो तो सही !
उसके उज्वल, चमकते रूप को ही नहीं !
उसके अंधेरे से घिरे रूप का भी ;
दीदार करने तुम मिलों न !
कभी, अंधेरे में भी, उससे मिलो न ।
वो उसकी, लट-पट चलती
ज़ुबान को ही नहीं ;
उसके चुप्पी को भी ,
समझने की कोशिश करो ।
सिर्फ उसके होटों से रस पीने का ही नहीं ,
उनके होटों पर दबे,छिपे लफ़्ज़ों को भी ;
कभी समझने की ,
ख्वाहिश तो करो !
उसकी वो टिम-टिमाती आंखें ही नहीं,
जो चमक से भरी है ।
वो आंखें, जिनमें राज़ छिपे हैं ;
जो, आंसुओं के दरिया से भरी हैं ,
उन्हें भी कभी देखने मिलो न !
कभी, अंधेरे में भी, उससे मिलो न। ।
उसका वो शारीरिक ढांचा ही नहीं,
जिसकी दुनिया दीवानी है ।
बल्कि, वो रूह जो निराकार है !
उसे भी, जानने की आशा रखो न ।
वो अटल,मज़बूत,ज़िद्दी व्यक्ति जिसे ,
हर कोई जानता,मानता है ।
सिर्फ, उससे ही नहीं ;
वो कमज़ोर, असहाय हिस्सा,
उसकी पहचान का ;
जिसे, उसने संजोकर ,
कई परतों में दबाकर रखा है !
उससे भी, मिलने के लिए जतन करो न ।
कभी, अंधेरों में भी, उससे मिलो न ।
कभी, अंधेरों में भी, उससे मिलो न ।।
~~ FreelancerPoet
Good..... Well done
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