मैं निर्जर हूं मैं निर्जल हूं
मैं एक वीरान मरुस्थल हूं
सूरज की अग्नि से तपित
बस एक वीरान मरुस्थल हूं
ना छाया है ना जलप्रपात
ना दूर दूर तक नर या नार
एक द्वीप हूं मै सिमटा अपने में
अंतहीन पर एकांत
है जीव व्यास मुझ में अजीब
विषधर है सारे सरीसृप
वृक्षों तक ने त्याग दिए
छाया धारी रूप सभी
कांटों से लाद लिया खुद को
मुझ जैसे बस हो गए सभी
जलता हूं मैं अग्नि समान
जब सूर्य रौब दिखलाता है
हिम सा हो जाता हूं शीतल
जब मयंक क्षितिज पर आता है
तुम हरित लता तुम मृगनयनी
हिरनी सा कौतुल करती हो
इस रेत के एक-एक कण को तुम
जब प्यार से संचित करती हो
होता बसंत सा एहसास
इस मरुस्थल की बुझती है प्यास
मेरे रेत का एक-एक कण
आतुर होता तुम्हें पाने को
है साहस तो प्रिये पांव धरो
मुझ रेत को तुम अपनाने को
डाॅ प्रशांत पांडेय
Sir .. please mere ko hindi ko tution dedo..! 🙏🙏
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